मंगलवार, फ़रवरी 7

स्वाद हो या रास का सा


स्वाद हो या रास का सा


एक शीतल सा धुआं है
या धुंधलका शाम का सा,
एक ज्योति रक्त वर्णी
एक दीपक अनदिखा सा  !

नाद अनहद गूँजता यूँ
गीत अनगाया हुआ सा,
सृष्टि का हो बीज जैसे
हर कहीं छाया हुआ सा !

एक झोंका प्रीत का हो
गंध ऐसी मदभरी सी,
एक अनजाने नगर से
भर संदेसे ला रही सी !

रस भरा महुआ टपकता
या मद मृदु रसाल का सा,
फूटी हो नवनीत गगरी
स्वाद हो या रास का सा !

एक अनछुआ परस हो
  स्पर्श कोई हो परों सा,
पुलक कोई भर रहा हो
हाथ बन आशीष सा !

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