सोमवार, अप्रैल 9

टूट गया जड़ता का बंधन



टूट गया जड़ता का बंधन
कुसुम उगाया उपवन में जब
मन मकरन्द हुआ जाता है,
प्रीत भरी इक नजर फिराई
अंतर् भीग-भीग जाता है !

खंजन  ख़ुशी बिखेरें गाकर
सहज उड़ान भरा करते हैं,
स्वीकारा हँसकर जब जग को
मधुमय गीत झरा करते हैं !

राग-रागिनी जहाँ गूँजती
प्राणों में जग गया स्पंदन,
सुरभित हुई कायनात यह
टूट गया जड़ता का बंधन !

दरिया चला सौंपने स्वयं को
सागर का अनुयायी बनकर
मुक्त हुआ जा पहुँचा नभ में
सहज पवन-रवि अंक में चढ़कर !

स्वप्न सजाये भर नयनों में
सृष्टि पूर्ण करने को आतुर,
बादल दौड़े चले आ रहे
सुनी पुकार लगाये दादुर !

व्यर्थ हुई कम्पन श्वासों की
निकट स्रोत अमृत का बहता,
जगी प्रार्थना अंतर् में जब
कण विषाद का भी न रहता !

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